Hindu hone ka dharma

Joshi, Prabhash

Hindu hone ka dharma - 5th ed. - New Delhi Rajkamal Prakashan Pvt. Ltd. 2018 - 654 p.

अपने सुदीर्घ पत्रकार जीवन में प्रभाष जोशी का लेखन लोक के विवेक को रेखांकित करने और जहाँ वह मंद पड़ा हो वहाँ उसे पुनर्जाग्रत करने का लेखन रहा है। ज़्यादातर हिन्दी समाज से संवाद करती उनकी पत्रकारिता एक ओर सत्ता-राजनीति से सीधी बहस में उतरती है और दूसरी ओर समाज, संस्कृति, पर्यावरण, संगीत और खेल की मार्फ़त समग्र जीवन-मूल्यों की खोज करती है। प्रभाष जोशी के सम्पादन में 1983 में प्रकाशित दैनिक ‘जनसत्ता’ एक बड़ी घटना थी जिसने ‘सबकी ख़बर लेने’ के साहस और ‘सबको ख़बर देने’ की प्रतिबद्धता के साथ पत्रकारिता के इकहरे विन्यास को, उसके सत्ता-केन्द्रित स्वरूप को तोड़ते हुए उसे लोकधर्मी बनाने की पहल की। क़रीब दस वर्ष बाद 1992 में जब हिन्दू समाज से उभरे कुछ विकृत और उन्मादी तत्त्वों ने अपनी साम्प्रदायिक-नकारात्मक प्रवृत्तियों के चरम के रूप में अयोध्या की बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया तो प्रभाष जोशी उन चुनिंदा लेखकों-पत्रकारों में अग्रणी थे जिन्होंने हमारे सर्वग्राही धर्म और उदार-सहिष्णु-सामासिक संस्कृति के साथ हुए इस दुष्कृत्य का विरोध किया। ऐसे समय में जब ज़्यादातर हिन्दी मीडिया साम्प्रदायिकता के आक्रमण के आगे घुटने टेक रहा था या हक्का-बक्का था तो प्रभाष जोशी ने गांधी विचार के आलोक में जिस वैचारिक संघर्ष की शुरुआत की, वह भी ‘जनसत्ता’ के प्रकाशन जैसी ही एक घटना थी।

‘हिन्दू होने का धर्म’ बाबरी ध्वंस के बाद और गुजरात नरसंहार तक ‘जनसत्ता’ में लिखे गए प्रभाष जोशी के सैकड़ों लेखों-स्तम्भों में से एक चयन है जिसके फ़ोकस में संघ परिवार के साम्प्रदायिक हिन्दुत्व के विपरीत हिन्दू होने का वह मर्म है जो हमारी वास्तविक परम्परा और समाज के मूल्यों को निर्मित करता आया है और महात्मा गांधी जिसके सबसे बड़े प्रतीक-व्यक्तित्व थे। साम्प्रदायिक तत्त्वों और छद्म राष्ट्रवाद के विभिन्न मुखोशों और दशाननों को उधेड़ती ये टिप्पणियाँ हमारे आसपास बनाए जा रहे एक बुरे या निकृष्ट हिन्दू से जिरह करती हुई उसकी जगह एक अच्छे, सच्चे और नैतिक हिन्दू को प्रतिष्ठित करती हैं और यह सिद्ध करती हैं कि हिन्दुत्व की संघ परिवारी परिभाषाएँ व्यापक हिन्दू समाज में पूरी तरह अमान्य हैं। आज़ादी की लड़ाई के समय से ही हमारे देश में ‘गांधी जीतेंगे या गोडसे’ की बहस चलती रही है और उसे भी इन लेखों में बहस का विषय बनाया गया है। ख़ास बात यह है कि प्रभाष जोशी अपना वैचारिक विमर्श और अलख हिन्दुत्व के ही मोर्चे पर चलाए और जगाए रहते हैं जिससे उनके तर्क और निष्कर्ष ज़्यादा विश्वसनीय और कारगर हो उठते हैं और इस काम में हमारा पारम्परिक लोक-विवेक और धर्म उनकी मदद करता चलता है।

(https://rajkamalprakashan.com/hindu-hone-ka-dharma.html)

9788126719365


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