Pushpa, Maitreyi

Alama kabutari - New Delhi Rajkamal Prakashan 2021 - 390 p.

मंसाराम कज्जा है और कदमबाई कबूतरी। नाजायज़ सन्‍तान है राणा—न कबूतरा न कज्जा। दोनों के बीच भटकता त्रिशंकु—संवेदनशील और स्वप्नदर्शी किशोर। अल्मा और राणा के बीच पनपते रागात्मक संबंधों की यह कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि राणा कल्पनालोक में रहता है और अल्मा जि़ंदगी के कठोर अनुभवों में पक रही है—वह हर स्थिति को सीढ़ी बनाकर दीवारें फाँदती कबूतरी है। 'अल्मा कबूतरी’ उस वास्तविक यथार्थ की जटिल नाटकीय कहानी है जो हमारे अनजाने ही आस-पास घटित हो रही है। अपनी उपस्थिति से हमें बेचैन करती है...

कभी-कभी सड़कों, गलियों में घूमते या अख़बारों की अपराध-सुर्ख़ि‍यों में दिखाई देनेवाले कंजर, साँसी, नट, मदारी, सँपेरे, पारदी, हाबूड़े, बनजारे, बावरिया, कबूतरे—न जाने कितनी जन-जातियाँ हैं जो सभ्य समाज के हाशियों पर डेरा लगाए सदियाँ गुज़ार देती हैं—हमारा उनसे चौकन्ना सम्‍बन्‍ध सिर्फ़ कामचलाऊ ही बना रहता है। उनके लिए हम हैं कज्जा और 'दिकू’—यानी सभ्य-संभ्रांत परदेसी’, उनका इस्तेमाल करनेवाले शोषक—उनके अपराधों से डरते हुए, मगर उन्हें अपराधी बनाए रखने के आग्रही। हमारे लिए वे ऐसे छापामार गुरिल्ले हैं जो हमारी असावधानियों की दरारों से झपट्टा मारकर वापस अपनी दुनिया में जा छिपते हैं। कबूतरा पुरुष या तो जंगल में रहता है या जेल में...स्त्रियाँ शराब की भट्टियों पर या हमारे बिस्तरों पर...

अंग्रेज़ों के गज़टों-गज़ेटियरों में उनके नाम हैं 'अपराधी कबीले’ या सरकश जन-जातियाँ। मगर रामसिंह की माँ भूरी कबूतरी अपना सम्‍बन्‍ध जोड़ती है रानी पद्मिनी और राणा प्रताप से, शिवाजी और झाँसी की प्रति-रानी झलकारी बाई से—यानी उन सबसे जिन्होंने किसी साम्राज्य के आगे सिर नहीं झुकाया, भले ही इसके लिए वनवास की गुमनामी का ही वरण क्यों न करना पड़ा हो।

स्वतंत्र भारत में समाज की मुख्यधारा के किनारे फेंक दिए गए इन 'अदृश्य’ लोगों की लड़ाई आज भी जारी है, आज भी वे कमंद और सीढ़ियाँ लगाकर हमारी दुर्ग-दीवारों पर चढ़ते हें तो ऊपर बैठे हम तीर-कमान साधे उनका शिकार करने का सुख पाते हैं।

इन्हीं 'अपरिचित’ लोगों की कहानी इस बार उठाई है कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने 'अल्मा कबूतरी’ में। यह 'बुंदेलखंड की विलुप्त होती जनजातीय का समाज-वैज्ञानिक अध्ययन’ बिलकुल नहीं है, हालाँकि कबूतरा समाज का लगभग सम्‍पूर्ण ताना-बाना यहाँ मौजूद है—यहाँ के लोग-लुगाइयाँ, उनके प्रेम-प्यार, झगड़े, शौर्य इस क्षेत्र को गुंजान किए हैं।


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891.433 / PUP