Apni unki baat
Material type: TextPublication details: New Dehi Vani Prakashan 2013 Description: 185 pISBN: 9788181436771Subject(s): Memories | InterviewsDDC classification: 891.433 Summary: अगर समकालीन परिदृश्य पर निगाह डालें तो संस्कृति और साहित्य ही नहीं, राजनीति में भी यह वर्तमान का अतीत द्वारा हैरतअंगेज अधिग्रहण का चिंताजनक परिदृश्य है । आलोचना, कहानी और कविता में बीसवीं सदी के पचास-साठ-सत्तर के दशक की प्रवृत्तियाँ नए सिरे से प्रतिष्ठित और बलशाली हैं। आलोचना की प्रविधि, सैद्धांतिकी और अकादमिक शास्त्रीयता उस कहानी और कविता के अस्वीकार और अवमानना के लिए कृतसंकल्प हैं जिसमें उत्तर- औद्योगिक या नव औपनिवेशिक जीवन अनुभवों की नई सृजनात्मक संरचनाएँ उपस्थित हैं। जिस तरह समकालीन राजनीति समकालीन नागरिक जीवन के नए अनुभवों और नए संकटों के लिए फिलहाल अपने भीतर या तो कोई दबाव और चुनौती नहीं महसूस करती या फिर उनके दमन, नकार और उपेक्षा में ही अपने अस्तित्व की सुरक्षा देखती है, लगभग वैसा का वैसा परिदृश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी उपस्थित है। यह हिंदी आलोचना कविता और कथा का सबसे जर्जर और वृद्ध काल है। जो जितना जर्जर है, वह उतना ही प्रासंगिक, सम्मानित और बलवान है। ऐसे में युवा और समकालीन सृजनशीलता के नाम पर जिस नए लेखन को प्रतिष्ठित किया जा रहा है, अगर आप गौर से देखें तो उसका डीएनए साठ-सत्तर के दशक की प्रवृत्तियों का ही वंशज है। ये रचनाएँ आज के उद्भ्रांत और परिवर्तनशील समय में अतीत की प्रेत- अनुगूँजें हैं, जिनका संकीर्तन वे कर रहे हैं, जो अब स्वयं भूत हो चुके हैं। संक्षेप में कहें तो यह कि रिटायर्ड वैभवशाली, ऐय्याश पाखंडी और अनैतिक राजनीतिकों और सांस्कृतिकों की आँख से आज का वह समूचा का समूचा समकालीन यथार्थ और जीवन गायब है, जिसके संकट, सवाल, अनुभव और संवेदना की नई महत्त्वपूर्ण और भविष्योन्मुखी रचनात्मक संरचनाएँ लगभग हाशिए में डाल दिए गए आज के नए लेखन में पूरे सामर्थ्य के साथ प्रकट हो रही हैं।जैसे ही हम लोकतंत्र कहते हैं तो फौरन कान में अंग्रेजी की 'डेमोक्रेसी' गूँजती है और फिर शुरू हो जाता है एक ऑटो कंट्रोल्ड प्रोसेस । स्व-नियंत्रित चिंतन प्रक्रिय चूँकि पश्चिम में ‘डेमोक्रेसी' और 'आधुनिकता' का गहरा, कारण-कार्य वाला रिश्ता रहा है, तो हम यही भी मानने लगते हैं कि क्योंकि हमारे यहाँ लोकतंत्र हैं इसलिए हम अपने आसपास के देशों के मुकाबले आधुनिक भी हैं। यानी हमारा देश और इसका राजनीतिक ढाँचा 'मॉडर्न और डेमोक्रेटिक' है। हमें लगता है कि एशिया या तीसरी दुनिया के जिन देशों में ऐसी 'डेमोक्रेसी' नहीं हैं, वे आधुनिक नहीं हैं। वे पूर्व आधुनिक, सामंती या कबीलाई देश हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से, जब से अमेरिका पूर्वी और मध्य-यूरोप के बाद अब एशियाई देशों में भी जबरन 'डेमोक्रेसी' की स्थापना के बर्बर-हिंसक अभियान में लगा हुआ है, तब से हमारे दिमाग में यह अच्छी तरह से बैठा दिया गया है कि मुस्लिम देशों में कहीं न कहीं कोई बुनियादी खामी ज़रूर है कि वहाँ 'लोकतंत्र' आ नहीं सकता। इराक की स्त्रियाँ अफगानिस्तान की तालिबान काल की बुरकाधारी स्त्रियाँ नहीं थीं। वे सार्वजनिक उद्यमों में काम करती थीं। फिर अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों लोकतंत्र का सफाया भी तो अमेरिका ने ही कराया था। जिस हबीबीबुल्ला को तालिबानियों ने मार कर बिजली या टेलीफोन के खंभे पर लटका रखा था, वह तो निस्संदेह अफगानिस्तान में आधुनिकता का ही पहला मसीहा था। उस दौरान अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में ही नहीं, अन्य सार्वजनिक उद्यमों में भी अफगानी औरतों की भागीदारी विस्मयकारी थी। उन्हें दुबारा बुर्के के भीतर बंदूकधारी कट्टर तालिबानों के हरम और मजहबी मदरसों में किसने धकेला ? हबीबुल्ला को रूस का समर्थक समाजवादी घोषित कर हत्या करने वाले तालिबानियों के हाथों में अमेरिकी हथियार और जेबों में डॉलर ही तो थे । (https://www.vaniprakashan.com/home/product_view/2864/Apni-Unki-Baat)Item type | Current library | Collection | Call number | Copy number | Status | Date due | Barcode |
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Book | Indian Institute of Management LRC General Stacks | Hindi Book | 891.433 PRA (Browse shelf(Opens below)) | 1 | Available | 006035 |
अगर समकालीन परिदृश्य पर निगाह डालें तो संस्कृति और साहित्य ही नहीं, राजनीति में भी यह वर्तमान का अतीत द्वारा हैरतअंगेज अधिग्रहण का चिंताजनक परिदृश्य है । आलोचना, कहानी और कविता में बीसवीं सदी के पचास-साठ-सत्तर के दशक की प्रवृत्तियाँ नए सिरे से प्रतिष्ठित और बलशाली हैं। आलोचना की प्रविधि, सैद्धांतिकी और अकादमिक शास्त्रीयता उस कहानी और कविता के अस्वीकार और अवमानना के लिए कृतसंकल्प हैं जिसमें उत्तर- औद्योगिक या नव औपनिवेशिक जीवन अनुभवों की नई सृजनात्मक संरचनाएँ उपस्थित हैं। जिस तरह समकालीन राजनीति समकालीन नागरिक जीवन के नए अनुभवों और नए संकटों के लिए फिलहाल अपने भीतर या तो कोई दबाव और चुनौती नहीं महसूस करती या फिर उनके दमन, नकार और उपेक्षा में ही अपने अस्तित्व की सुरक्षा देखती है, लगभग वैसा का वैसा परिदृश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी उपस्थित है। यह हिंदी आलोचना कविता और कथा का सबसे जर्जर और वृद्ध काल है। जो जितना जर्जर है, वह उतना ही प्रासंगिक, सम्मानित और बलवान है। ऐसे में युवा और समकालीन सृजनशीलता के नाम पर जिस नए लेखन को प्रतिष्ठित किया जा रहा है, अगर आप गौर से देखें तो उसका डीएनए साठ-सत्तर के दशक की प्रवृत्तियों का ही वंशज है। ये रचनाएँ आज के उद्भ्रांत और परिवर्तनशील समय में अतीत की प्रेत- अनुगूँजें हैं, जिनका संकीर्तन वे कर रहे हैं, जो अब स्वयं भूत हो चुके हैं। संक्षेप में कहें तो यह कि रिटायर्ड वैभवशाली, ऐय्याश पाखंडी और अनैतिक राजनीतिकों और सांस्कृतिकों की आँख से आज का वह समूचा का समूचा समकालीन यथार्थ और जीवन गायब है, जिसके संकट, सवाल, अनुभव और संवेदना की नई महत्त्वपूर्ण और भविष्योन्मुखी रचनात्मक संरचनाएँ लगभग हाशिए में डाल दिए गए आज के नए लेखन में पूरे सामर्थ्य के साथ प्रकट हो रही हैं।जैसे ही हम लोकतंत्र कहते हैं तो फौरन कान में अंग्रेजी की 'डेमोक्रेसी' गूँजती है और फिर शुरू हो जाता है एक ऑटो कंट्रोल्ड प्रोसेस । स्व-नियंत्रित चिंतन प्रक्रिय
चूँकि पश्चिम में ‘डेमोक्रेसी' और 'आधुनिकता' का गहरा, कारण-कार्य वाला रिश्ता रहा है, तो हम यही भी मानने लगते हैं कि क्योंकि हमारे यहाँ लोकतंत्र हैं इसलिए हम अपने आसपास के देशों के मुकाबले आधुनिक भी हैं। यानी हमारा देश और इसका राजनीतिक ढाँचा 'मॉडर्न और डेमोक्रेटिक' है। हमें लगता है कि एशिया या तीसरी दुनिया के जिन देशों में ऐसी 'डेमोक्रेसी' नहीं हैं, वे आधुनिक नहीं हैं। वे पूर्व आधुनिक, सामंती या कबीलाई देश हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से, जब से अमेरिका पूर्वी और मध्य-यूरोप के बाद अब एशियाई देशों में भी जबरन 'डेमोक्रेसी' की स्थापना के बर्बर-हिंसक अभियान में लगा हुआ है, तब से हमारे दिमाग में यह अच्छी तरह से बैठा दिया गया है कि मुस्लिम देशों में कहीं न कहीं कोई बुनियादी खामी ज़रूर है कि वहाँ 'लोकतंत्र' आ नहीं सकता।
इराक की स्त्रियाँ अफगानिस्तान की तालिबान काल की बुरकाधारी स्त्रियाँ नहीं थीं। वे सार्वजनिक उद्यमों में काम करती थीं। फिर अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों लोकतंत्र का सफाया भी तो अमेरिका ने ही कराया था। जिस हबीबीबुल्ला को तालिबानियों ने मार कर बिजली या टेलीफोन के खंभे पर लटका रखा था, वह तो निस्संदेह अफगानिस्तान में आधुनिकता का ही पहला मसीहा था। उस दौरान अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में ही नहीं, अन्य सार्वजनिक उद्यमों में भी अफगानी औरतों की भागीदारी विस्मयकारी थी। उन्हें दुबारा बुर्के के भीतर बंदूकधारी कट्टर तालिबानों के हरम और मजहबी मदरसों में किसने धकेला ? हबीबुल्ला को रूस का समर्थक समाजवादी घोषित कर हत्या करने वाले तालिबानियों के हाथों में अमेरिकी हथियार और जेबों में डॉलर ही तो थे ।
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